श्री कृष्ण के वंशज नही है ?

श्री कृष्ण के वंशज नही है ?

दुर्योधन के अंत के साथ ही महाभारत के महायुद्ध का भी अंत हो गया । माता गाँधारी दुर्योधन के शव के पास खडी फफक-फफक कर रो रही हैं ।

पुत्र वियोग में “गाँधारी का भगवान कृष्ण को श्राप देना, भगवान कृष्ण का श्राप को स्वीकार करना और गाँधारी का पश्चताप करना।

इसका बडा ही मार्मिक वर्णन किया है धर्मवीर भारती जी ने (गीता-कविता से संकलित)

गाँधारी : ह्र्दय विदारक स्वर में ,

तो वह पड़ा है कंकाल मेरे पुत्र का

 किया है यह सब कुछ कृष्ण

 तुमने किया है सब

सुनो आज तुम भी सुनो

मैं तपस्विनी गाँधारी अपने

सारे जीवन के पुण्यों का बल ले कर कहती हूँ।

कृष्ण सुनो

तुम अगर चाहते तो रूक सकता था युद्द यह

मैंने प्रसव नहीं किया था कंकाल वह

इंगित पर तुम्हारे ही भीम ने अधर्म किया

क्यों नहीं तुमने यह शाप दिया भीम को

जो तुमने दिया अश्वत्थामा को

तुमने किया है प्रभुता का दुरूपयोग

 यदि मेरी सेवा में बल है

 संचित तप में धर्म है

प्रभु हो या परात्पर हो

कुछ भी हो सारा

तुम्हारा वंश इसी तरह

पागल कुत्तों की तरह

एक दूसरे को परस्पर फाड खायेगा

तुम खुद उनका विनाश कर के कई वर्षों बाद

किसी घने जंगल में साधारण

व्याध के हाथों मारे जाओगे

प्रभु हो पर मारे जाओगे पशु की तरह

वंशी ध्वनि: कृष्ण की आवाज

कृष्ण ध्वनि:

प्रभु हूँ या परात्पर, पर पुत्र हूँ तुम्हारा

तुम माता हो

मैंने अर्जुन से कहा सारे तुम्हारे कर्मों का पाप पुण्य योगक्षेम मैं वहन करूँगा

अपने कंधों पर

अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में

कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोडों बार

जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ कोई नहीं था

मैं ही था गिरता था जो घायल हो कर रणभूमि में

अश्वत्थामा के अंगों से रक्त पीप स्वेद बन कर बहूँगा

 मैं ही युग युगांतर तक जीवन हूँ मैं

तो मृत्यु भी मैं ही हूँ माँ

श्राप यह तुम्हारा स्वीकार है

गाँधारी:

यह क्या किया तुमने फूट कर रोने लगती है

रोई नहीं मैं अपने सौ पुत्रों के लिये

लेकिन कृष्ण तुम पर मेरी ममता अगाध है

कर देते श्राप मेरा तुम अस्वीकार

 तो क्या मुझे दु:ख होता? नही

मैं थी निराश मैं कटु थी पुत्रहीन थी

कृष्ण ध्वनि:

ऐसा मत कहो माता जब तक मैं जीवित हूँ

पुत्रहीन नहीं हो तुम प्रभु हूँ या परात्पर

पर पुत्र हूँ तुम्हारा तुम माता हो.   

इतिहास गवाह है द्वापर युग से लेकर आज तक अफगानिस्तान की भूमि पर कभी शांति नहीं रही और इसका कारण गांधारी का श्राप है।

गांधारी ने दो श्राप दिए थे:

एक श्राप उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को दिया था कि जिस तरह से मेरे कुल का नाश हुआ उसी तरह से तुम्हारे कुल का विनाश हो जाएगा और सच में संपूर्ण यदुकुल का नाश हो गया और द्वारिका नगरी ही समुंदर में डूब गई।

दूसरा श्राप उन्होंने अपने भाई गांधार नरेश शकुनी को दिया था तुमने अपने स्वार्थ के लिए मेरे खानदान में लड़ाई करवा कर मेरे सौ पुत्रों का विनाश करवाया मैं तुझे श्राप देती हूं तेरे राज्य में कभी भी शांति नहीं रहेगी।

और यह सच्चाई है कभी भी अफगानिस्तान में शांति नहीं रही।

श्राप में गांधारी ने जो कहा बह सब सच होने लगा, द्वारका मे मदिरा सेवन करना प्रतिबंध था लेकिन महाभारत युद्ध के 36 साल बाद द्वारका के लोग इसका सेवन करने लगे।

लोग संघर्षपूर्ण जीवन जीने की बजाए विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लेने लगे।

द्वारका मे स्वर्ग की सभी सुविधाए उपलब्ध थी,

गाँधारी के श्राप का प्रभाव यदुवंश पर इस तरह हुआ कि उन्होने भोग-विलास के आगे अपने अच्छे आचरण नैतिकता शिष्टाचार विनम्रता सब त्याग दिया।

एक बार यदुवंशी उत्सव के लिए समुद्र किनारे इकठ्ठे हुए बह मदिरा पीकर झूम रहे थे तब ही उनमे आपस मे भयंकर झगड़ा हुआ क्योकि उनमे सभ्य तो कोई रहा नही था।

झगड़ा इतना बढ़ गया कि बहाँ उगी हुई समुद्री घास एक दूसरे के मारने लगे।

उसी घास से उन सभी यादवो का न्याश हो गया वर्णन इस प्रकार है कि साम्ब को मिले श्राप की वजह से उगी हुई घास मे जहरीले तत्व थे।

हम पक्का कह नहीं सकते कि उन्हें श्राप लगा।

क्योंकि मीमांसा करने पर श्राप कब वरदान बन जाएगा और वरदान कब श्राप बन जाएगा यह पता ही नहीं चलता।

और इसी को कहते है माया।

गांधारी ने सम्पूर्ण यदुवंश को श्राप नही दिया बल्कि कृष्ण वंश को श्राप दिया और गोप गोपिकाओं को भी श्राप नही दिया।

 1918 मे अहीर सम्मेलन के बाद गोप गोपिकाओ के वंशजों ने यादव उपनाम का प्रयोग करने का निर्णय लिया।

English Version:

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