रुद्र का अर्थ

रुद्र का अर्थ

अनेक रुद्रों में व्यापक एक रुद्र, रुद्र सबके अंत:करण में विराजमान परमात्मा ही हैं।

अनेक रुद्रों में व्यापक एक रुद्र, इस विषय का प्रतिपादन करने वाले ये मंत्र हैं,

रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे ||

रुद्रो रुद्रेभि: देवो मृलयातिन: ||

रुद्रं रुद्रेभिरावहा बृहन्तम् ||

[ ऋग्वेद ]

अनेक रुद्रों में व्यापक रूप में रहनेवाले पूजनीय एक रुद्र की हम प्रार्थना करते हैं। अनेक रुद्रों के साथ रहने वाला एक रुद्र देव हमें सुख देता है।

अनेक रुद्रों के साथ रहने वाले एक बड़े रुद्र का सत्कार करो।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि अनेक छोटे रुद्र अनेक जीवात्मा हैं,और उन सब में व्यापने वाला महान् रुद्र सर्वव्यापक परमात्मा ही है।

रुद्र पद के कुछ अर्थ निम्नलिखित हैं

1: रुद्रकालात्मक परमेश्वर है।

2: रुलाने वाले प्राण है।

3: शत्रुओं को रुलाने वाले वीर रुद्र हैं।

4: रोग दूर करने वाला औषध रूप है।

5: संहार करनेवाला देव रुद्र है सबको रुलाता है।

6: रुत् का अर्थ दु:ख है उनको दूर करने वाला परमेश्वर रुद्र है।

7: ज्वर का अभिमानी देव रुद्र है।

कुछ विद्वानों की दृष्टि में शत्रु को रुलाने वाली वीर रुद्र है। रुद्र का अर्थ धीर वीर है।

ऋषि मुनि के अनुसार,

०१: रुद्र का अर्थ शिव है

०२: रुद्र का अर्थ शंकर है

०३: पापी जनों को दु:ख देकर रुलाता है वह रुद्र है

०४: रुद्र का अर्थ धीर बुद्धिमान् है

०५: रुद्र का अर्थ स्तुति करने वाला है

०६: शत्रु को रुलाने वाला रुद्र है

०७: रुद्र दु:ख का निवारण करने वाला

०८: दुष्टों को दंड देने वाला

०९: रोगों का नाशकर्ता

१०: महावीर

११: सभा का अध्यक्ष

१२: जीव

१३: परमेश्वर

१४: प्राण

१५: राजवैद्य है।

पुराणों में “रुद्र” को शिव के साथ समीकृत कर दिया गया है। शिव का ही पर्याय रुद्र को माना गया है। इनकी अष्टमूर्ति का संकेत तो यजुर्वेद में भी है परन्तु अनेक पुराणों में इससे सम्बद्ध कथा विस्तार से दी गयी है।

शुद्ध सनातन धर्म में देवो के देव महादेव को रोगों को उत्पन्न करने वाले और साथ ही समस्त रोगों को हरने वाले भगवान के रुप में जाना जाता है।

ऋ्ग्वेद में भगवान शंकर को रुद्र के स्वरुप में आंधी तूफान के साथ साथ रोगों को लाने वाले देवता के रुप में पूजित किया गया है।

कहा गया है कि रुद्र अपने तीरों से रोगों को उत्पन्न करते हैं। परवर्ती ग्रंथों में भगवान शिव को विषहर भी कहा गया है।

हमारे शरीर में कीटाणुओं या किसी भी प्रकार से प्रवेशित जहर को भगवान शंकर खत्म कर प्राणी मात्र को निरोगी काया प्रदान करते हैं।

यजुर्वेद में भगवान शंकर को समर्पित एक महामंत्र मृत्युंजय मंत्र का जिक्र है जिसे मृत संजीवनी मंत्र के रुप में भी जाना जाता है।

इसे गायत्री मंत्र की तरह ही महामंत्र का दर्जा प्राप्त है।

यह मंत्र इस प्रकार है,

ऊँ त्र्यंम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बंधनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ||

यह महामंत्र भी गायत्री मंत्र की तरह 24 अक्षरों से मिल कर बना है। इस मंत्र के चमत्कारों की अनेक कथाएं शुद्ध सनातन धर्म में बताई गई हैं। कहा जाता है कि इसी महामंत्र को भगवान शिव ने अपने शिष्य और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को दिया था।

इसी मंत्र के द्वारा शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मरे अपने दैत्यों की सेना को जीवित कर देते थे। इसी मंत्र के जाप के द्वारा चंद्रमा को अपने शाप से मुक्ति मिली थी,और चंद्रमा अपनी मृत्यु के शाप से मुक्त होकर महादेव के सिर पर शोभित हुआ।

कहा जाता है कि मार्कण्डेय ऋषि की आयु महज पांच वर्ष की ही थी लेकिन इसी मंत्र के जाप के द्वारा भगवान शिव को मार्कण्डेय ऋषि ने प्रसन्न किया और अमरता का वरदान प्राप्त किया था।

इस मंत्र के सवा लाख जप के द्वारा किसी भी प्रकार के रोगों से मृत्यु शय्या पर पड़े व्यक्ति को आरोग्य प्रदान किया जा सकता है।

इस मंत्र के जाप से अकाल मृत्यु के भय से भी मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐसी मान्यता है कि हैजा प्लेग और किसी भी कीटाणु या वायरस के द्वारा फैलने वाले महामारी को इस मंत्र के जाप और हवन के द्वारा दूर किया जा सकता है।

English Version:

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