दुर्लभ अखंड साम्राज्य योग

दुर्लभ अखंड साम्राज्य योग

परिभाषा – लाभेश (ग्यारवे भाव का स्वामी), धर्मेश (नवम भाव का स्वामी) तथा धनेश (दूसरे भाव का स्वामी) इनमें से कोई एक भी ग्रह यदि चंद्र लगन से अथवा लग्न से केंद्र स्थान में स्थित हो और साथ ही यदि गुरु भी द्वितीय, पंचम तथा एकादश भाव का स्वामी होकर उसी प्रकार केंद्र में स्थित हो तो “अखंड साम्राज्य” नाम के योग की सृष्टि होती है।

फल – यह योग स्थायि साम्राज्य कथा धनादि प्रदान करने वाला महान योग है।

हेतु – यह योग धनेश, नवमेश, लाभेश तथा एक विशिष्ट प्रकार के गुरुद्वारा बनता है। अर्थात यदि द्वितीय भाव का स्वामी अपनी उच्च राशि, निज राशि अथवा मित्र राशि में स्थित हो तो ऐसा जातक सैकड़ों पर शासन करता है। अर्थात द्वितीय भाव का स्वामी यदि उच्च राशि में होकर केंद्र में स्थित हो तो राज्य की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि द्वितीय स्थान का शासन से घनिष्ठ संबंध है और द्वितीयेश का केंद्रादी में स्थित होकर बलवान होना राज्य की प्राप्ति करवाता है। इस प्रकार जब हम नवमेश पर विचार करते हैं तो एक ऐसे सर्वोत्तम शुभ ग्रह पर विचार करते हैं जो भाग्य का प्रतिनिधि होने से समस्त राज्य, बल, धन आदि की खान है। अतः भाग्य अधिपति का केंद्र में बलवान होकर स्थित होना यदि राज्य दे तो अतिशयोक्ति नहीं। इसके अतिरिक्त नवम भाव राज्य कृपा का भाव भी माना गया है। अतः नवम भाव के स्वामी के बली होने से राज्य कृपा की प्राप्ति अथवा राज्य प्राप्ति का होना युक्तियुक्त है। इसी प्रकार लाभाधिपति पति भी हर प्रकार के लाभ का द्योतक है। उसका बली होना होना भी हर प्रकार के लाभ का सूचक है। रह गया गुरु, सो वह तो धन कारक तथा राज्य कृपा कारक ग्रह है ही। जब वह धन अथवा लाभ का स्वामी बनेगा तो धन तथा राज्य कृपा का और भी अधिक बली प्रतिनिधि बन जाएगा। ऐसे मूल्यवान ग्रह का केंद्र में स्थित होना लग्न अथवा चंद्र को भी धन तथा राज्यप्रद शुभता का देने वाला होगा। इस प्रकार धन, ऐश्वर्य, राज्य, लाभ  सबका लग्न पर प्रभाव, लग्न को अर्थात नीज को साम्राज्य रूप में इन सद्गुणों की प्रचुरता दे दे तो आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

ऊपर दी गई कुंडली पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की है। देखिए गुरु यहां लाभेश ही धनेश होकर प्रमुख दशम केंद्र में है और भाग्येश शुक्र भी उसी प्रमुख केंद्र में है। ये दोनों न केवल लग्न से प्रमुख केंद्र में है अपितु लग्नेश से भी है। अतः साम्राज्य, धन सब का सुख लग्न को पहुंच रहा है। गुरु शुक्र पर पाप मध्यत्व के कारण इस योग का फल उनको देर से प्राप्त हुआ, परंतु राज्य की प्राप्ति अवश्य हुई।

अखंड साम्राज्य का एक और उदाहरण ऊपर दी गई कुंडली में दिखाया है। यह कुंडली रूस के भूतपूर्व डिक्टेटर जोसेफ स्टालिन की कुंडली है। इस कुंडली में एकादशाधिपति बुध लग्न से केंद्र में तथा द्वितियाधिपती तथा पंचम अधिपति गुरु भी लगने से केंद्र में स्थित है। इस प्रकार बुध और गुरु इस योग की शर्तें पूरी करते हैं।

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